हिन्दी पत्रकारिता : रचनात्मक रचनात्मक साहित्य एवं ज्ञानात्मक साहित्य


पत्रकारिता एक ऐसा सुविस्तृत, सुमिश्रित जन-माध्यम है जिसमें रचनात्मक साहित्य की समग्र विधाएँ - नाटक, निबंध, कविता आदि तथा ज्ञानात्मक चिंतन के विविध आयाम समाहित और संप्रेषित होते हैं। 19 वीं शती के जागरणकाल की हिन्दी पत्र- कारिता का कलेवर भी सर्जनात्मक एवं ज्ञानात्मक सामग्री से आपूरित था । अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं के संपादक ओजस्वी पत्रकार होने के साथ साथ प्रतिभासम्पन्न सर्जनाकार भी थे। हिंदी गद्य-पद्य-भाषा को आधुनिकता, ताजगी, ओज और साहित्यिक छवि प्रदान करने में इन संपादक - रचनाकारों का प्रदेय अविस्मरणीय है । क्या उनके साहसिक रचनात्मक प्रयासों, निःस्वार्थं जन-समर्पित ज्ञान-निष्ठा और संघर्ष को नकार कर आगे बढ़ जाना साहित्य की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को झुठलाना नहीं होगा ? 1 भारतेन्दुकाल की सचेत पत्रकारिता देश के साहित्य, भाषा, ज्ञान, कला आदि तथा के मानवीय एवं राष्ट्रीय संवेदना की जागरूक रक्षक और सर्जक थी । उसके प्रभावों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन तत्कालीन जीवन, युगीन साहित्यिक परिवेश और राष्ट्रीय दशाओं के ऐतिहासिक परिपार्श्व को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए, न कि आधुनिक अभिव्यंजना- सूत्रों का आग्रह लेकर, उनको रचनात्मक चेतना और गद्य- स्वरूप निर्माण में उनकी भूमिका को बिल्कुल ही नजर अन्दाज कर दिया जाये ।
पत्रकारिता और साहित्य के बीच मूल विभाजक रेखा संवेदना और भौतिकता तात्कालिक और मानवीय शाश्वत अनुभव तटस्थ और भावात्मक दृष्टि, सनसनीदार ब्योरों और सर्जनात्मकता की होती है। 'साहित्य सर्जनात्मकता की सघनतम कलात्मक प्रस्तुति है, पत्रकारिता सामान्यतः यथार्थ भावबोध को हल्के सर्जनात्मक, सहज, स्पर्श के साथ संप्रेषित करने की कला है।' भारतेन्दु काल के संपादक-लेखकों ने साहित्य और
1. "आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन् 1903 में इलाहाबाद से 'सरस्वती' का संपादन शुरू किया। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका तभी से महत्वपूर्ण समझी जानी चाहिए, क्योंकि इसके पूर्व भारतेन्दु काल में या उससे भी पहले जो समाचार-पत्र निकलते थे, वे राजनीतिक चर्चाओं तथा हिंदी प्रचार के साधन तो थे लेकिन हिंदी गद्य के स्वरूप निर्माण या परिष्कार में उनका विशेष योग नहीं था - शिवदान सिंह चौहान, हिंदी गद्य साहित्य, पृ० 170-171

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